Monday, January 16, 2012

Maine Aahuti Bankar Dekha

Was suddenly reminded today of a poem by Agyeya that used to be a great favorite and an inspiration (all through my grad school years, I used to have a copy of the text pinned in front of my desk). Posting the text here:

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने
काँटा कठोर है तीखा है, इसमें उसकी मर्यादा है
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने

मैं कब कहता हूँ युद्ध करूँ तो मुझे न तीखी चोट मिले
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ, मेरा ऊँचा प्रासाद बने
या पात्र जगत की श्रद्धा की, मेरी धुंधली सी याद बने

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा, क्यों विकल करे यह चाह मुझे
नेतृत्व न मेरा छिन जावे, क्यों इसकी हो परवाह मुझे
मैं प्रस्तुत हूँ, चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने
फिर उस धूलि का कण-कण भी, मेरा गति-रोधक शूल बने

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आंसू की माला है
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु-प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-करी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी  चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूलि-सा, आंधी-सा और उमढ़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में  पग-पग पर  रुकना ही मेरा वार बने
भव सारा तुझको है स्वाहा, सब कुछ ताप कर अँगार बने
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने